Tuesday, September 18, 2018

आरएसएस के कार्यक्रम के पीछे संघ प्रमुख भागवत की सोच क्या है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आएसएस) को अपनी स्थापना के वक्त के से ही इस बात पर यक़ीन रहा है कि राजनीति और राजनीतिक गतिविधियां ही अंतिम लक्ष्य नहीं हैं.
हालांकि, यह विडंबना है कि आरएसएस ने सबसे अधिक वहीं अपना ध्यान केंद्रित किया जहां बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार रही या जहां बीजेपी का प्रभुत्व बढ़ता जाता है. जबकि आरएसएस कहती रही है कि बीजेपी उसका कोई राजनीतिक धड़ा नहीं है.
93 साल पहले बनी आरएसएस यह भी कहती रही है कि 1980 में अस्तित्व में आई बीजेपी उसका राजनीतिक संगठन नहीं है. लेकिन ऐसा माना जाता है कि दोनों ही संगठनों का भाग्य एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है.
आरएसएस पर प्रतिबंध के बाद जब बिना शर्त उसे हटा लिया गया तब 1 अगस्त 1949 को उसने अपना संविधान अपनाया. इसमें कहा गया है कि वह राजनीति से अलग है और केवल सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों से संबंधित गतिविधियों के लिए समर्पित है.
हालांकि आरएसएस के स्वयंसेवक विदेशी ताकतों के प्रति निष्ठा रखने वाले या हिंसा का सहारा लेने वाले या अपना मक़सद साधने के लिए प्रतिबंधित साधनों का इस्तेमाल करने वाले संगठनों को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होने या किसी भी संस्थान के साथ काम करने के लिए स्वतंत्र हैं.
देश को दु:खद बंटवारे की ओर ले जाने वाली घटनाओं की ओर देखें तो इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, कम्युनिस्ट और देश के दूसरे संगठनों ने 'फूट डालो, राज करो' की ब्रितानी नीति के मकसद को पूरा किया. आरएसएस ने तार्किक और स्वाभाविक से लगने वाले ऐसे संगठनों के साथ अपने सदस्यों के संबंध रखने को प्रतिबंधित करने का प्रावधान रखा है.
भारत में वामपंथी पार्टी और वाम आंदोलनों से जुड़े नेताओं ने कभी भी कांग्रेस, महात्मा गांधी और उनके स्वाधीनता संग्राम के धार्मिक रुख के प्रति अपनी नफ़रत को नहीं छुपाया.
साल 1934 से वामपंथी पार्टी ने 'गांधी बायकॉट कमेटी' बनाकर महात्मा गाँधी के ख़िलाफ़ एक अभियान चलाया. इसके बाद इसे एक राजनीतिक मोर्चे 'लीग अगेंस्ट गांधीज़्म' में बदल दिया गया.
वामपंथियों ने महात्मा गांधी पर अंग्रेज़ों के प्रति नरम रुख़ अपनाने का आरोप लगाया.
इसके साथ ही महात्मा गांधी पर ये आरोप लगाया गया कि उन्होंने कामगार और कृषक वर्ग के हितों के साथ समझौता किया और साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाने में धर्म का इस्तेमाल किया.
वामपंथियों द्वारा अनैतिकता और हिंसा की परिभाषा पर महात्मा गांधी ने अपनी ओर से दुख ज़ाहिर किया था - ["कई ईमानदार कांग्रेसी कई प्रांतों से मेरे पास आए या उन्होंने लिखा कि वामपंथियों के पास अपनी पार्टी को जीवित रखने के लिए कोई सिद्धांत नहीं है और उनके हाथ में जो आता है उससे वह अपने विरोधियों को पीटते हैं." (पत्र नं.721, पेज नं. 413)] लगभग हर दिन कांग्रेसियों द्वारा मेरे कानों में ये ख़बरें पड़ रही हैं कि (कम्युनिस्ट) पार्टी अपनी कार्य पद्धति में अनैतिक है और यहां तक की हिंसा का सहारा आरएसएस ने महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर अपने संगठन को अहिंसा के सिद्धांत पर खड़ा किया है और हिंदू समाज के धार्मिक स्वभाव को मान्यता दी है.
गांधी की तरह ही आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर के. बी. हेडगेवार भी मानते थे कि हिंदुओं को जाति और दूसरी पहचानों से ऊपर उठकर हिंदू के रूप में एकजुट होना पड़ेगा.
जाति, भाषा और क्षेत्रीय पहचान को चुनौती दिए बिना इनकी जगह 'हिंदू पहचान' को महत्व देने का फ़ैसला रणनीतिक रूप से आरएसएस की गतिविधियों में शामिल किया गया. ऐसी रोजाना की गतिविधियों को ही शाखा कहा गया.
आज देश में आरएसएस की 50 हज़ार से अधिक दैनिक सभाएं (शाखा) होती हैं. इसके साथ ही अन्य सामूहिक बैठकों के अलावा 30 हज़ार साप्ताहिक बैठकें होती हैं. इन बैठकों में लगभग दस लाख लोग शामिल होते हैं. ये लोग एक समान विचारों के साथ आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए काम करते हैं.
इन सबके अलावा आरएसएस ने उन हज़ारों नागरिकों को प्रेरित किया है जिन्होंने ग्रामीण, आदिवासी, विज्ञान और तकनीक से लेकर लगभग हर क्षेत्र में ग़ैर-सरकारी संगठन खड़े किए हैं. इन्होंने उस दृढ़ विश्वास को अपने साथ रखा है कि समाज की हर समस्या का समाधान मौजूद है और प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ न कुछ समाधान है.
आरएसएस ने भारत के अलावा विदेशों में भी अपने नेटवर्क को फैलाया है और 100 से अधिक देशों में इसकी मौजूदगी है. आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व लगातार इन जगहों का दौरा करता है और प्रवासियों के हालात का जायज़ा लेते हुए उन्हें प्रेरित करता है कि सकारात्मक रूप से वेदों के अनुसार वे उस देश के साथ-साथ अपनी मातृभूमि में सच्ची भावना से योगदान दें.

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