Tuesday, September 11, 2018

राज्य पेट्रोल में 3.20, डीजल में 2.30 रुपए कम करें तो भी उन्हें घाटा नहीं: एसबीआई की रिपोर्ट

ई दिल्ली. पेट्रोल-डीजल के दाम रोजाना बढ़ने से जनता परेशान है। लेकिन, राज्य सरकारों का मुनाफा बढ़ रहा है। एसबीआई की रिसर्च के मुताबिक कीमतें बढ़ने से 19 प्रमुख राज्यों को 2018-19 में 22,702 करोड़ रुपए की अतिरिक्त कमाई होगी। यह आकलन साल में कच्चे तेल की औसत कीमत 75 डॉलर बैरल और डॉलर का मूल्य 72 रुपए मान कर किया गया।एसबीआई की रिपोर्ट में कहा गया कि राज्य पेट्रोल के दाम औसत 3.20 रुपए और डीजल के 2.30 रुपए घटा दें, तब भी रेवेन्यू उनके बजट अनुमान के बराबर रहेगा। राज्य पेट्रोल-डीजल की कीमत और डीलर कमीशन पर वैट वसूलते हैं। जिन 19 राज्यों पर रिसर्च है, वहां पेट्रोल पर वैट 24% से 39% तक और डीजल पर 17% से 28% तक है। कीमत बढ़ने के साथ वैट के रूप में वसूली बढ़ने से राज्यों की कमाई भी बढ़ जाती है। 2017-18 में वैट से राज्यों को 1.84 लाख करोड़ रुपए मिले।   
केंद्र की एक्साइज ड्यूटी फिक्स होती है। अभी पेट्रोल पर यह 19.48 रुपए और डीजल पर 15.33 रुपए प्रति लीटर है। पश्चिम बंगाल ने मंगलवार को राज्य में पेट्रोल-डीजल की कीमत एक रुपए घटा दी। आंध्रप्रदेश ने सोमवार को 2 रुपए घटाए थे। राजस्थान ने रविवार को वैट 4% कम कर दिया था। के नारे 2019 से पहले ही दामन से लिपट जाएंगे यह न तो नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा न ही 2014 में पहली बार खुलकर राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुए सर संघचालक मोहन भागवत ने सोचा होगा। न ही भ्रष्ट्राचार और घोटालों के आरोपों को झेलते हुए सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस ने सोचा होगा। न ही उम्मीद और भरोसे की कुलांचे मारती उस जनता ने सोचा होगा, जिसके जनादेश ने भारतीय राजनीति को ही कुछ ऐसा मथ दिया कि अब पारम्परिक राजनीति की लीक पर लौटना किसी के लिए संभव ही नहीं है।
2013-14 में कोई मुद्‌दा छूटा नहीं था। महिला, दलित, मुस्लिम, महंगाई, किसान, मजदूर, आतंकवाद, कश्मीर, पाकिस्तान, चीन, डॉलर, सीबीआई, बेरोजगारी, भ्रष्ट्राचार और अगली लाइन अबकी बार मोदी सरकार। तो 60 में से 52 महीने गुजर गए और बचे 8 महीने की जद्‌दोजहद में पहली बार पार्टियां छोटी पड़ गईं और ‘भारत’ ही सामने आ खड़ा हो गया। सत्ता ने कहा ‘अजेय भारत, अटल भाजपा’ तो विपक्ष बोला ‘मोदी बनाम इंडिया।’ यानी दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने, संभालने या कहें सत्ता भोगने को तैयार राजनीति के पास कोई विज़न नहीं है कि भारत होना कैसा चाहिए।

कैसे उन मुद्‌दों से निजात मिलेगी जिन मुद्‌दों का जिक्र कर 2014 में गद्‌दी पलट गई। या फिर उन्हीं मुद्‌दों का जिक्र कर गद्‌दी पाने की तैयारी है। अजेय भारत में 2019 भी सत्ता हस्तांतरण की दिशा में जा रहा है, जैसे 2014 गया था। जैसे इमरजेंसी के बाद इंदिरा की गद्‌दी को जनता ने यह सोचकर पलट दिया था कि अब जनता सरकार आ गई, तो नए सपने, नई उम्मीदों को पाला जा सकता है। अतीत के इन पन्नों पर गौर जरूर करें, क्योंकि इसी के अक्स तले ‘अजेय भारत’ का राज छिपा है।

आपातकाल में जेपी की अगुवाई में संघ के स्वयंसेवकों का संघर्ष रंग लाया। देशभर के छात्र-युवा आंदोलन से जुड़े। 1977 में जीत होने की खुफिया रिपोर्ट के आधार पर चुनाव कराने के लिए इंदिरा गांधी तैयार हो गईं और अजेय भारत का सपना पाले जनता ने उन्हें धूल चटा दी। जनता सरकार को 54.43 फीसदी वोट मिले। 295 सीटों (गठबंधन ने 345 सीटों) पर जीत हासिल की, जबकि इंदिरा गांधी को सिर्फ 154 सीटों (28.41% वोट) पर जीत मिली, लेकिन ढाई बरस के भीतर ही जनता के सपने कुछ इस तरह चूर हुए कि 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी ही नहीं हुई, बल्कि जीत ऐतिहासिक रही और इंदिरा गांधी को 353 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस को रिकॉर्ड तोड़ 66.73 फीसदी वोट मिले। लेकिन सत्ता मिली तो हुआ क्या।
बेरोजगार के लिए रोजगार नहीं था। कॉलेज छोड़कर निकले छात्रों के लिए डिग्री या शिक्षा तक की व्यवस्था नहीं थी। महंगाई थमी नहीं। भ्रष्ट्राचार खत्म करने के नारे ही ढाई बरस तक लगते रहे। सत्ता के भीतर ही सत्ता के सत्ताधारियों का टकराव इस चरम पर भी पहुंचा कि 1979 में अटल बिहारी वाजपेयी पटना के कदमकुआं स्थित जयप्रकाश नारायण के घर पर उनसे मिलने पहुंचे। वाजपेयी दिल्ली से सटे सूरजकुंड में होने वाली जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक को लेकर दिशा-निर्देश लेने के बाद जेपी के घर से सीढ़ियों से उतरने लगे तो पत्रकारों ने सवाल पूछा, बातचीत में क्या निकला। वाजपेयी ने अपने अंदाज में जवाब दिया, ‘उधर कुंड (सूरजकुंड), इधर कुआं (कदमकुआं) बीच में धुआं ही धुआं।’

अजेय भारत का सच यही है कि हर सत्ता परिवर्तन के बाद सिवाय धुएं के कुछ नज़र नहीं आता। यानी 1977 में जिस सरकार के पास जनादेश की ताकत थी। उस सरकार के पास भी अजेय भारत का कोई सपना नहीं था। हां, फॉर्जरी-घोटाले और कालेधन पर रोक के लिए नोटबंदी का फैसला तब भी लिया गया। 16 जनवरी 1978 को मोरारजी सरकार ने हजार, पांच हजार और दस हजार के नोट उसी रात से बंद कर दिए। उसी सच को प्रधानमंत्री मोदी ने 38 बरस बाद 8 नवंबर, 2016 को दोहराया। एलान कर दिया कि अब कालेधन, आतंकवाद, फॉर्जरी-घपले पर रोक लग जाएगी पर बदला क्या?

फिर भी सत्ता ने खुद की सत्ता बरकरार रखने के लिए अपने को ‘अजेय भारत’ से जोड़ा और जीत के गुणा भाग में फंसे विपक्ष ने ‘मोदी बनाम देश’ कहकर उस सोच से पल्ला झाड़ लिया कि आखिर न्यूनतम की लड़ाई लड़ते-लड़ते देश की सत्ता तो लोकतंत्र को ही हड़प रही है और अजेय भारत इसी का अभ्यस्त हो चला है कि चुनाव लोकतंत्र है। जनादेश लोकतंत्र है। सत्ता लोकतंत्र है। अजेय भारत की राजधानी दिल्ली में भूख से मौत पर संसद-सत्ता को शर्म नहीं आती। उच्च शिक्षा के लिए हजारों छात्र देश छोड़ दें तो भी असर नहीं पड़ता।

बीते तीन बरस में सवा लाख बच्चों को पढ़ने के लिए वीज़ा दिया गया, ताल ठोककर लोकसभा में मंत्री ही बताते हैं। इलाज बिना मौत की बढ़ती संख्या भी मरने के बाद मिलने वाली रकम से राहत दे देगी, इसका एलान गरीबों के लिए इंश्योरेंस के साथ दुनिया की सबसे बड़ी राहत के तौर पर प्रधानमंत्री ही करते हैं। ये सब इसलिए, क्योंकि अजेय भारत का मतलब सत्ता और विपक्ष की परिभाषा तले सत्ता न गंवाना या सत्ता पाना है।

सत्ता बेफिक्र है कि उसने देश के तमाम संवैधानिक संस्थानों को खत्म कर दिया। सत्ता मानकर बैठी है  कि पांच बरस की जीत का मतलब न्यायपालिका उसके निर्णयों के अनुकूल फैसला दे। चुनाव आयोग सत्तानुकुल होकर काम करे। सीबीआई, ईडी, आईटी, सीवीसी, सीआईसी, सीएजी के अधिकारी विरोध करने वालों की नींद हराम कर दें।  2014 से निकलकर 2018 तक आते आते जब अजेय भारत का सपना 2019 के चुनाव में जा छुपा है तो अब समझना यह भी होगा कि 2019 का चुनाव या उसके बाद के हालात पारम्परिक राजनीति के नहीं होंगे।

भाजपा अध्यक्ष ने अपनी पार्टी के सांसदों को  झूठ नहीं कहा कि 2019 जीत गए तो 50 बरस तक राज करेंगे और संसद में कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी झूठ नहीं कहा कि नरेन्द्र मोदी-अमित शाह जानते हैं कि चुनाव हार गए तो उनके साथ क्या कुछ हो सकता है। इसलिए ये हर हाल में चुनाव जीतना चाहते हैं तो आखिर में सिर्फ यही नारा लगाइए, अबकी बार...आज़ादी की दरकार।

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